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फिर भी उदार बनते हो 18-May-2023

    कविता - फिर भी उदार बनते हो 


मानवता को

बांट कर

तालमेल 

काट कर,

इंसानियत में

जाति का 

जहर घोल कर,

भगवान को 

बांट कर 

धर्म का ठेकेदार बनते हो,

साहब!

फिर भी उदार बनते हो। 


इंसानियत को पीट कर

बेटियों को लूट कर

लाचारी के अग्नि में

जिंदा जलाकर

अत्याचार करते हो,

साहब!

फिर भी उदार बनते हो। 


किसी को सता कर

झूठे वादों में फंसा कर

अपनेपन के नाम पर

सता सता कर

होशियार बनते हो,

साहब!

फिर भी उदार बनते हो। 



किसी के हक को

मार कर

उस पर अधिकार कर

जताते हो रोब

भूखे से निवाला

छीन कर

होनहार बनते हो,

साहब!

फिर भी उदार बनते हो। 


किसी के मुसीबत में

दुख दर्द नसीहत में

दो चार पैसे देकर

सयानी बेटियों पर

बुरी नजर डाल कर

बहला फुसलाकर

गलत व्यवहार करते हो ,

साहब!

फिर भी उदार बनते हो। 



मां बाप को छोड़कर

रिस्तों का खून कर

घर द्वार भूल कर

अपनों को दूर कर

उन्हें घुट घुट कर

जीने को

लाचार करते हो,

साहब!

फिर भी उदार बनते हो। 



          रचनाकार -

     रामबृक्ष बहादुरपुरी

 अम्बेडकरनगर उत्तर प्रदेश 









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5 Comments

Varsha_Upadhyay

19-May-2023 03:56 PM

बहुत खूब

Reply

Abhinav ji

19-May-2023 09:31 AM

Very nice 👍

Reply

shahil khan

19-May-2023 09:00 AM

Nice

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